क्या नरेन्द्र मोदी और अमित शाह भाजपा में तानाशाह की भूमिका में हैं? जिन सिद्धांतों पर लड़ाई लड़ने के लिए भाजपा का जन्म हुआ था, क्या वो रास्ता यह पार्टी छोड़ चुकी है। और आज की भाजपा में कार्यकर्ता तो दूर मंत्रियों की भी आवाज नहीं निकलती। ये कुछ प्रतिक्रियाएं हैं जो सोमवार के फर्स्ट कालम, भाजपा का यह मौजूदा दौर कब तक...पर सामने आईं हैं। सत्ता की अपनी स्वाभाविक बुराईयां होती है। जाहिर है हर जगह तो भाजपा इससे अछूत हो नहीं सकती।
दूसरा भाजपा अगर अपने आपको लचीला नहीं बनाती तो उसका यह मौजूदा दौर भी कोसों दूर होता है। और भाजपा ने यह राजनीति कोई नरेन्द्र मोदी या अमित शाह के राष्ट्रीय स्तर पर हुए प्रादुर्भाव के बाद तो सीख नहीं ली। लंबा समय लगा है, भाजपा को राजनीति सीखने के लिए। जाहिर है राजनीति के दांवपेंच भी आप उससे ही तो सीखेेंगे जो सत्ता में मौजूद है। तो इसमें शक नहीं कि कांग्रेस से विरोध के बावजूद भी भाजपा ने सीखा तो सबकुछ कांग्रेस से ही है। इसका दर्द भाजपा में दो तरह के लोगों को हो सकता है। एक जिनकी सत्ता में उपेक्षा हो रही है और दूसरे वे जो खांटी टाईप के जनसंघी मानसिकता के कार्यकर्ता हैं।
दलबदल, जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त, राज्यों की सरकारों को गिराना, बनाना, बर्खास्त करना क्या यह सिर्फ पिछले तीन सालों की कहानी है। सीबीआई सहित तमाम जांच एजेंसियों के दुरूपयोग के मामले क्या इस देश में नए हैं? वैसे भी एक स्थापित तथ्य है कि राज करने में नीति कहीं नहीं होती। गवर्नेंस की नीति तो हो सकती है। लेकिन राजनीति के साथ तो साम-दाम-दंड-भेद शास्वत रूप से जुडेÞ हैं। तो भाजपा जो कर रही है, उसके लिए मोदी या शाह को कोसना फिजूल है।
सोमवार को ही पूर्वोत्तर के त्रिपुरा में तृणमूल कांग्रेस से निष्कासित छह विधायक भाजपा में शामिल हो गए और कम्युनिस्टों के इस राज्य में भाजपा ने विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा हासिल कर लिया। त्रिपुरा में भाजपा का कोई नामलेवा भी नहीं है। लेकिन अपने संगठन कौशल में निपुण भाजपा को आखिर पैर रखने का मौका तो मिला या नहीं। आज उत्तरपूर्व में देख लें, असम जैसे बड़े राज्य सहित मणिपुर में भी उसकी सत्ता है और इसलिए सेवन सिस्टर्स में उसका दखल हर कहीं थोड़ा बहुत तो हो ही गया है।
रही बात नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के तानाशाह होने की तो मध्यप्रदेश पर ही गौर कर लीजिए। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बने तीन साल पूरे हो गए लेकिन क्या वे शिवराज सिंह चौहान का बाल भी बांका कर पाएं। मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही इन चर्चाओं ने कई बार जोर पकड़ा कि शिवराज अब गए, तब गए। मोदी जितनी बार भी प्रधानमंत्री बनने के बाद मध्यप्रदेश आए, उनकी बाडी लेंग्वेज ने कभी भी यह नहीं दर्शाया कि वे शिवराज सिंह चौहान से खुश हैं।
मोदी की प्रशासनिक क्षमताएं और पकड़, काम करने की उनकी अपनी शैली हो सकता है कि लोगों को उनमें एक दृढ़ शासक का आभास कराती हो। यह भी एक तथ्य है कि इस समय पीएमओ की जैसी कार्यशैली है, शायद वो पहले के प्रधानमंत्रियों के बिल्कुल विपरीत है। कांग्रेस के भ्रष्टाचार को सामने रखकर मोदी ने देश की जनता को अपने ईमानदार होने का भरोसा दिलाया था। इसलिए मोदी अगर अपने मंत्रियों और अफसरों पर सख्त हो तो इसमें बुराई भी क्या है? लोगों में यह भरोसा तो बैठा है कि मोदी ईमानदार हैं।
अब मोदी से ठीक उलट मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के 12 साल के शासन को देख लो। रोज कहने सुनने में आता है कि इस मुख्यमंत्री की प्रशासनिक पकड़ नहीं है। या मध्यप्रदेश में तो सरकार को अफसर ही चला रहे हैं। वो भी कुछ इने गिने। बावजूद इसके मोदी और अमित शाह के तीन साल के कार्यकाल में मध्यप्रदेश में पत्ता भी नहीं खड़क रहा। इसकी अभी भी कोई गारंटी नहीं है कि 2018 के विधानसभा चुनाव के पहले मध्यप्रदेश में कोई नेतृत्व परिवर्तन होगा या नहीं। हां, इस बात की गारंटी हो सकती है कि मुख्यमंत्री रहते हुए भी शिवराज अगले चुनाव का वैसा चेहरा नहीं होंगे जैसा 2008 या 2013 में था।
तय है कि मध्यप्रदेश में अगला विधानसभा चुनाव मोदी और शाह की जोड़ी ही लड़ेगी। 2019 जिनका लक्ष्य हो, वो 29 लोकसभा सीटों पर रिस्क कैसे ले सकते हैं? इसलिए 2018 में भी मध्यप्रदेश में जीतेंगे तो मोदी-शाह और हारेंगी तो शिवराज की एंटी इनकंबेंसी। तब तक शिवराज भले ही रहें या जाएं।
लेकिन बात अगर पार्टी में भी तानाशाही की होती तो क्या शिवराज का बने रहना संभव था? इसलिए मान लेना चाहिए कि शिवराज को बनाए रखने या हटाने का अकेला फैसला मोदी और शाह के हाथ में नहीं है। बिना आरएसएस को भरोसे में लिए भाजपा में कोई भी नेतृत्व एकतरफा फैसले नहीं ले सकता है। सरकार या भाजपा के रोज के कामों में संघ का भले ही हस्तक्षेप नहीं हो लेकिन महत्वपूर्ण फैसलों में तो होता है। संघ, संगठन से छेड़छाड़ किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता है। उमा भारती ने किया था, सभी ने उनका हश्र देखा। लेकिन क्योंकि नरेन्द्र मोदी संघ के प्रचारक रह चुके हैं इसलिए उनसे ऐसी किसी गलती की उम्मीद करना बेमानी है।
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